गाँव के बीचोबीच एक पुराना बरगद का पेड़ था, जिसकी छाँव तले बच्चे खेलते, बूढ़े सुस्ताते और युवक अपनी महफ़िल सजाते थे। उसी गाँव में पाँच भाइयों का एक परिवार रहता था। पाँचों भाइयों की बंटी नहीं थी और पाँचों अक्सर झगड़ पड़ते। एक दिन किसी बात पर उनका इतना बड़ा विवाद हुआ कि उन्होंने एक-दूसरे से बोलना बंद कर दिया।
गाँव में एक बुज़ुर्ग दादा जी थे, जिन्हें सब मान-सम्मान देते थे। उन्होंने पाँचों भाइयों को समझाने की ठानी। वे बरगद के पेड़ के नीचे बैठे और भाइयों को पास बुलाया। दादा जी ने सबसे पहले बड़े भाई को एक लकड़ी थमाई और कहा, “इसे तोड़कर दिखाओ।” बड़े भाई ने झट से लकड़ी को तोड़ दिया। दादा जी ने मुस्कुराते हुए चार और लकड़ियाँ निकालकर उन्हें एक-दूसरे से बाँध दिया और गट्ठर बनाकर बोले, “अब इसे तोड़ो।” पाँचों ने कोशिश की, पर वह गट्ठर टूट नहीं पाया।
दादा जी ने समझाया, “देखो बेटा, अलग-अलग रहोगे तो उस अकेली लकड़ी की तरह आसानी से टूट जाओगे। लेकिन एक साथ रहोगे तो कोई तुम्हें हरा नहीं सकेगा।”
उसी शाम भाइयों ने आपस में बात की और सारे मतभेद भूलकर फिर से साथ रहने का निर्णय किया। गाँव वालों ने भी यह देखा कि जो भाई एक-दूसरे से मुँह फुलाए बैठे थे, वे अब हँसते-बोलते फिर रहे हैं। बरगद के पेड़ की छाँव पहले की तरह ख़ुशनुमा हो गई।
इस तरह, पाँचों भाइयों ने यह सीख लिया कि एकता में ही बल है। यदि वे हर काम में मिलजुलकर चलेंगे, तो बड़े से बड़ा संकट भी उनके सामने घुटने टेक देगा। उनका आपसी प्रेम ही असली मज़बूती है, जो उन्हें हर कदम पर आगे बढ़ने का साहस देता है।