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महाभारत की एक सांझ  

उदाहरण: “कह नहीं सकता संजय…”

क) कौन अपने हृदय के दुख को इस प्रकार प्रकट कर रहा है और क्यों?

उत्तर: इन पंक्तियों में, महाराज धृतराष्ट्र संजय के सामने अपना दुख प्रकट कर रहे हैं। वे इसलिए दुखी हैं क्योंकि महाभारत के विनाशकारी युद्ध में उनका सब कुछ नष्ट हो गया है। उन्हें यह एहसास हो रहा है कि उनके पापों का ही यह परिणाम है और वे अपनी व्यथा को रोक नहीं पा रहे हैं।

ख) ‘पुत्र स्नेह’ से आप क्या समझते हैं? ‘भीषण विषफल’ किसे और क्यों मिला? इसका क्या परिणाम हुआ?

उत्तर: ‘पुत्र स्नेह’ का अर्थ है पिता का अपने बेटे के लिए प्रेम, लेकिन जब यह प्रेम अंधा हो जाए तो पिता सही-गलत का भेद भूल जाता है। ‘भीषण विषफल’ (भयंकर ज़हरीला फल) धृतराष्ट्र को मिला, क्योंकि उन्होंने इसी अंधे पुत्र-मोह में दुर्योधन की हर गलत ज़िद पूरी की। इस विषफल का परिणाम कुरु वंश का सर्वनाश और हस्तिनापुर का पतन हुआ।

ग) ‘पाप’ शब्द से आप क्या समझते हैं?

उत्तर: ‘पाप’ का साधारण अर्थ है ऐसा कोई भी काम, जो धर्म, नैतिकता और शास्त्रों के विरुद्ध हो। जिन कार्यों से किसी दूसरे व्यक्ति या समाज को दुख या हानि पहुँचती है, वे पाप कहलाते हैं। एकांकी के संदर्भ में, धृतराष्ट्र का अन्याय का साथ देना, द्रौपदी के अपमान पर चुप रहना और युद्ध को न रोकना, यह सब पाप ही थे। पाप की परिभाषा बहुत व्यापक है, लेकिन मूल रूप से यह मनुष्य के बुरे कर्मों का प्रतीक है।

घ) उपर्युक्त पंक्तियों में जिसके विचार हैं, उसके विषय में लिखिए।

उत्तर: ये विचार महाराज धृतराष्ट्र के हैं, जो हस्तिनापुर के नेत्रहीन राजा और कौरवों के पिता थे। उनका चरित्र एक ऐसे मजबूर पिता का है जो पुत्र-मोह में इतना अंधा हो जाता है कि वह अपने राज्य और परिवार के प्रति अपने कर्तव्यों को भूल जाता है। वे जानते थे कि दुर्योधन गलत रास्ते पर है, फिर भी उन्होंने उसे कभी नहीं रोका। इसी कारण महाभारत का विनाश हुआ और अंत में वे अकेले पछतावे की आग में जलते रह गए।

१) “अरे नीच! अब भी तेरा…”

क) उपर्र्युक्त वाक्य किसने, किससे कहे हैं? ‘अब भी’ का प्रयोग किस संदर्भ में किया गया है?

उत्तर: यह वाक्य युधिष्ठिर ने दुर्योधन से क्रोध में कहे हैं। इसका प्रसंग यह है कि दुर्योधन युद्ध में हारकर सरोवर में छिपा है। ‘अब भी’ का प्रयोग इस संदर्भ में हुआ है कि इतनी शर्मनाक हार और विनाश के बाद भी दुर्योधन घमंड भरी बातें कर रहा है, जो युधिष्ठिर को हैरान और क्रोधित करता है।

ख) ‘किस राज्य’ को प्राप्त करने का प्रसंग है? अंत में किसकी पराजय होती है?

उत्तर: यहाँ हस्तिनापुर के राज्य को प्राप्त करने का प्रसंग है, जो पांडवों का अधिकार था लेकिन दुर्योधन ने उसे अधर्म से छीन लिया था। इस संघर्ष के अंत में अधर्म के प्रतीक दुर्योधन की पराजय होती है और धर्म के प्रतीक युधिष्ठिर की विजय होती है।

ग) ‘थोथी बातों’ से क्या तात्पर्य है? कौन थोथी बातें कर रहा है और क्यों?

उत्तर: ‘थोथी बातों’ का मतलब है खोखली, झूठी और आधारहीन बातें, जिनमें कोई सच्चाई न हो। यहाँ दुर्योधन थोथी बातें कर रहा है। वह सरोवर में अपनी हार के डर से छिपा है, लेकिन बाहर से अपनी वीरता की डींगें हाँक रहा है और कह रहा है कि वह थका है, डरा नहीं। वह ऐसी बातें इसलिए कर रहा है ताकि वह अपनी कायरता को छिपा सके और पांडवों के सामने खुद को अभी भी एक वीर योद्धा साबित कर सके।

घ) उपर्युक्त अवतरण के आधार पर पांडवों की विचारधारा पर प्रकाश डालिए।

उत्तर: इन पंक्तियों से पांडवों की धर्मपरायण विचारधारा का पता चलता है। वे युद्ध के नियमों का सम्मान करते हैं और अधर्म से जीतना नहीं चाहते। दुर्योधन उनका सबसे बड़ा शत्रु है और निहत्था है, फिर भी वे उसे मारने की बजाय उसे युद्ध का एक और अवसर देते हैं। युधिष्ठिर का उसे कवच और अस्त्र देने का प्रस्ताव यह दिखाता है कि वे केवल न्याय और धर्म के लिए लड़ रहे थे, किसी व्यक्तिगत शत्रुता के लिए नहीं।

२) “अपने स्वार्थ के लिए अपने…”

क) उपर्युक्त वाक्य किसने किससे कहे हैं? इनसे वक्ता के क्या भाव प्रकट होते हैं?

उत्तर: यह वाक्य दुर्योधन ने युधिष्ठिर से कहे हैं। इन वाक्यों से दुर्योधन का अत्यधिक क्रोध, घृणा और अपनी गलती दूसरों पर डालने का भाव प्रकट होता है। वह युद्ध के विनाश का सारा दोष पांडवों पर मढ़कर खुद को सही साबित करने की कोशिश कर रहा है।

ख) कौन प्राण रहते पांडवों की सत्ता को स्वीकार नहीं कर सकता और क्यों?

उत्तर: दुर्योधन अपने प्राण रहते पांडवों की सत्ता को स्वीकार नहीं कर सकता। ऐसा उसके अहंकारी और ईर्ष्यालु स्वभाव के कारण है। उसने जीवन भर पांडवों को खुद से छोटा समझा और उनसे घृणा की, इसलिए हारकर भी उनके सामने झुकना उसे अपनी मृत्यु से भी बुरा लग रहा है।

ग) ‘पांडवों की रक्त की प्यास’ से क्या तात्पर्य है? समझाकर लिखिए।

उत्तर: ‘पांडवों की रक्त की प्यास’ दुर्योधन द्वारा पांडवों पर लगाया गया एक झूठा और कड़वा आरोप है। इसका तात्पर्य यह है कि दुर्योधन के अनुसार, पांडव खून के प्यासे हैं और उन्होंने सिर्फ राज्य के लिए अपने सभी गुरुजनों और रिश्तेदारों का वध कर दिया। वास्तव में, यह दुर्योधन की अपनी मानसिकता को दर्शाता है, वह अपनी क्रूरता को पांडवों पर थोप रहा है ताकि वह अपनी हार को सही ठहरा सके।

घ) क्या दुर्योधन का पांडवों के लिए यह कहना उचित है? अपने विचार व्यक्त कीजिए।

उत्तर: नहीं, दुर्योधन का ऐसा कहना बिल्कुल भी उचित नहीं है। यह कथन पूरी तरह से असत्य और अन्यायपूर्ण है। महाभारत का युद्ध दुर्योधन की ज़िद और लालच का परिणाम था। पांडवों ने तो शांति बनाए रखने के लिए हर संभव प्रयास किया था, यहाँ तक कि वे सिर्फ पाँच गाँव लेकर भी संतुष्ट होने को तैयार थे। दुर्योधन ने ही शांति का हर प्रस्ताव ठुकराकर युद्ध को जन्म दिया, इसलिए उसका पांडवों को दोषी ठहराना सरासर गलत है।

३) “भीम: तो फिर आ न बाहर…”

क) किसको अपना पराक्रम दिखाने को कहा जा रहा है? ‘तो फिर’ का प्रयोग किस संदर्भ में किया गया है?

उत्तर: यहाँ भीम, दुर्योधन को अपना पराक्रम (वीरता) दिखाने के लिए ललकार रहे हैं। ‘तो फिर’ का प्रयोग दुर्योधन की झूठी डींगों के जवाब में किया गया है। जब सरोवर में छिपे दुर्योधन ने कहा कि वह डरा नहीं है और उसमें अभी भी बहुत बल है, तो भीम ने उसे चुनौती देते हुए कहा, ‘तो फिर’ बाहर आकर युद्ध करो।

ख) “घृत देकर उभाड़ा है” इसको स्पष्ट करें।

उत्तर: इस वाक्य का अर्थ है ‘घी डालकर आग को और भड़काना’। भीम यह कहना चाहते हैं कि दुर्योधन ने वर्षों तक अपने बुरे कर्मों, जैसे कि लाक्षागृह की घटना, द्रौपदी का अपमान और छल से राज्य हड़पना, से पांडवों के मन में घृणा और बदले की आग को भड़काया है।

ग) “कालाग्नि” से क्या अभिप्राय है? किसकी लपटों से किसके साथी स्वाहा हो गए?

उत्तर: ‘कालाग्नि’ का अर्थ है ‘विनाश की आग’। यहाँ इसका प्रयोग महाभारत के भयंकर युद्ध के लिए किया गया है जिसने सब कुछ जलाकर राख कर दिया। इस युद्ध रूपी आग की लपटों में दुर्योधन के सभी साथी और महान योद्धा, जैसे भीष्म, द्रोणाचार्य, कर्ण और उसके सौ भाई, जलकर ‘स्वाहा’ हो गए, अर्थात् वीरगति को प्राप्त हुए।

घ) “तेरी आहुति लिए बिना शाँत न होगी” से आप क्या समझते हैं?

उत्तर: ‘आहुति’ का अर्थ है यज्ञ की अग्नि में दी जाने वाली भेंट, जिसके बिना यज्ञ पूरा नहीं होता। इस पंक्ति का गहरा अर्थ है कि यह महाभारत का युद्ध एक महायज्ञ है और इस युद्ध-यज्ञ की आग तब तक शांत नहीं होगी, जब तक कि इस युद्ध के मुख्य कारण, यानी दुर्योधन की, आहुति न दे दी जाए। भीम स्पष्ट रूप से कह रहे हैं कि दुर्योधन की मृत्यु के बाद ही यह विनाश रुकेगा और उन्हें शांति मिलेगी।

४) “युधिष्ठिर : अरे पामर! तेरा धर्म तब…”

क) ‘पामर’ किसके लिए और क्यों कहा गया है? सात-सात महारथियों ने मिलकर किसको मारा था?

उत्तर: ‘पामर’ शब्द का प्रयोग दुर्योधन के लिए किया गया है, जिसका अर्थ है ‘नीच’ या ‘दुष्ट’। युधिष्ठिर ने ऐसा इसलिए कहा क्योंकि दुर्योधन ने जीवन भर अधर्म और पाप के काम किए थे। सात-सात महारथियों ने मिलकर अर्जुन के वीर पुत्र अभिमन्यु को अधर्म से घेरकर मारा था।

ख) भारत भूमि की विशेषताएँ लिखिए। इसे किस विशेषण से विभूषित किया गया है और क्यों?

उत्तर: इन पंक्तियों में भारत भूमि को पुण्यभूमि कहा गया है। इसकी विशेषता यह है कि यह धर्म, न्याय और पुण्य की भूमि मानी जाती है। इसे पुण्यभूमि इसलिए कहा गया है क्योंकि यहाँ के लोग धर्म और सत्य के मार्ग पर चलने में विश्वास रखते हैं और अधर्म का साथ नहीं देते।

ग) ‘सुई की नोक के बराबर भी भूमि देना तुझे अनुचित लगा था’ इसके पीछे क्या भावना छिपी है?

उत्तर: इस पंक्ति के पीछे युधिष्ठिर की पीड़ा और दुर्योधन के प्रति फटकार की भावना छिपी है। वे दुर्योधन को याद दिला रहे हैं कि जब युद्ध टालने के लिए भगवान श्री कृष्ण शांति दूत बनकर आए थे, तब पांडवों ने केवल पाँच गाँव माँगे थे। लेकिन दुर्योधन ने अपने अहंकार और लालच में सुई की नोक के बराबर भी जमीन देने से मना कर दिया था। युधिष्ठिर यह बता रहे हैं कि युद्ध का असली दोषी दुर्योधन का यही हठ और लालच था।

घ) ‘अपने अधर्म से… दुहाई देता है’ इस पंक्ति की व्याख्या अपने शब्दों में कीजिए।

उत्तर: इस पंक्ति में युधिष्ठिर, दुर्योधन के दोहरे चरित्र पर गहरा व्यंग्य कर रहे हैं। वे कहते हैं कि दुर्योधन ने अपने स्वार्थ के लिए इस पुण्यभूमि पर अधर्म से इतना बड़ा विनाश और रक्तपात करवाया। उसने कभी धर्म के नियमों की परवाह नहीं की। और अब, जब वह खुद हार गया है और प्राण संकट में हैं, तो वह अपनी जान बचाने के लिए धर्म की दुहाई दे रहा है (यानी धर्म की बातें कर रहा है)। युधिष्ठिर उसकी इसी झूठी और अवसरवादी धर्म की भावना का मज़ाक उड़ा रहे हैं।

५) “ले लो राक्षसों! यदि तुम्हारी…”

क) उपर्युक्त वाक्य किसने किससे कहे हैं? ‘राक्षसों’ कहकर क्यों संबोधित किया गया?

उत्तर: यह वाक्य दुर्योधन ने पांडवों से कहे हैं। उसने पांडवों के प्रति अपनी अत्यधिक घृणा और क्रोध प्रकट करने के लिए उन्हें ‘राक्षसों’ कहकर संबोधित किया है। उसके अनुसार, पांडव खून के प्यासे हैं जिन्होंने उसके सब कुछ छीन लिया।

ख) दुर्योधन की अशांति का क्या कारण है? उसकी एक भी कामना पूरी क्यों नहीं हुई?

उत्तर: दुर्योधन की अशांति का मुख्य कारण पांडवों के प्रति उसकी ईर्ष्या, घृणा और राज्य का लालच था। उसकी एक भी कामना इसलिए पूरी नहीं हुई क्योंकि उसने अपनी इच्छाओं को पूरा करने के लिए हमेशा अधर्म और कुटिलता का रास्ता चुना, और अधर्म के रास्ते पर चलकर कभी स्थायी सुख या सफलता नहीं मिलती।

ग) ‘तो अब इन प्राणों को रखकर भी क्या करूँगा’ ऐसा क्यों कहा है? दुर्योधन की इस असहाय स्थिति का क्या कारण है?

उत्तर: दुर्योधन ने ऐसा इसलिए कहा क्योंकि वह युद्ध में अपना सब कुछ खो चुका था – उसके भाई, मित्र, सेना, राज्य और सम्मान, सब कुछ नष्ट हो गया था। अब उसके जीवन में कुछ भी नहीं बचा था जिसके लिए वह जीवित रहना चाहता। उसकी यह असहाय और दयनीय स्थिति उसके अपने बुरे कर्मों, अहंकार और पांडवों के प्रति घृणा का ही परिणाम थी। वह समझ गया था कि अब उसका अंत निश्चित है, इसलिए उसने निराशा में यह बात कही।

घ) दुर्योधन सत्पथ पर था या कुपथ पर? इस विषय में अपने विचार व्यक्त कीजिए।

उत्तर: दुर्योधन निस्संदेह कुपथ पर, यानी बुरे रास्ते पर था। उसका पूरा जीवन छल, कपट, ईर्ष्या और अधर्म से भरा हुआ था। बचपन में भीम को विष देने की कोशिश से लेकर, लाक्षागृह में पांडवों को जलाने की साजिश, छल से जुए में उनका सब कुछ छीनना, और भरी सभा में द्रौपदी का अपमान करना, ये सभी घटनाएँ साबित करती हैं कि वह हमेशा कुपथ पर ही चला। उसका सत्य और न्याय से कोई लेना-देना नहीं था।

६) “पहले वीरता का दंभ और अंत में…”

क) उपर्युक्त वाक्य किसने किससे कहे? ‘हम तुम्हें दया करके छोड़ेंगे भी नहीं’ ऐसा क्यों कहा गया है?

उत्तर: यह वाक्य युधिष्ठिर ने दुर्योधन से कहे हैं। ऐसा इसलिए कहा गया है क्योंकि दुर्योधन के अपराध (जैसे द्रौपदी का अपमान और लाखों लोगों की मृत्यु) इतने बड़े थे कि उन्हें क्षमा नहीं किया जा सकता था। युधिष्ठिर का मतलब था कि वे उसे अधर्म से तो नहीं मारेंगे, लेकिन उसके अपराधों का दंड दिए बिना छोड़ेंगे भी नहीं।

ख) ‘तुम्हारी भाँति’ का प्रयोग कर किसके कौनसे गुणों की विशेषता की चर्चा है?

उत्तर: ‘तुम्हारी भाँति’ का प्रयोग करके युधिष्ठिर, दुर्योधन के अवगुणों, विशेष रूप से उसकी अधर्मी युद्ध शैली की ओर इशारा कर रहे हैं। वे कह रहे हैं कि हम तुम्हारी तरह नहीं हैं जो युद्ध के नियमों को तोड़कर निहत्थे योद्धा पर वार करे, जैसा दुर्योधन ने अभिमन्यु के साथ किया था।

ग) वीर पुरुष की क्या पहचान है? इस विषय में अपने विचार व्यक्त कीजिए।

उत्तर: मेरे विचार में, वीर पुरुष की पहचान केवल शारीरिक बल से नहीं होती, बल्कि उसके चरित्र से होती है। एक सच्चा वीर पुरुष धर्म और न्याय के लिए लड़ता है, वह कभी निहत्थे या कमजोर पर वार नहीं करता और न ही युद्ध के नियमों को तोड़ता है। वह चुनौतियों का सामना करता है, उनसे छिपता नहीं है। सबसे महत्वपूर्ण, एक वीर पुरुष अपनी हार को भी सम्मान के साथ स्वीकार करता है, कायरों की तरह बहाने नहीं बनाता।

घ) ‘अधर्म’ से क्या अभिप्राय है? युद्ध में धर्म के कुछ नियमों का वर्णन कीजिए।

उत्तर: ‘अधर्म’ का अभिप्राय है, ऐसे कार्य जो धर्म, नैतिकता और न्याय के विरुद्ध हों। यह सत्य के मार्ग से भटकना है। युद्ध में धर्म के कुछ प्रमुख नियम थे, जैसे – सूर्य डूबने के बाद युद्ध न करना, निहत्थे शत्रु पर वार न करना, शरण में आए शत्रु को क्षमा कर देना, और एक योद्धा से एक ही योद्धा का लड़ना। महाभारत के युद्ध में कौरवों ने इनमें से कई नियमों को तोड़ा, जो अधर्म था।

७) “जब सुयोधन आहत होकर भूमि पर गिर पड़े…”

क) उपर्युक्त वाक्य किसने किससे कहे हैं? ‘सुयोधन’ कहकर किसको संबोधित किया गया है?

उत्तर: यह वाक्य संजय ने महाराज धृतराष्ट्र से कहे हैं, जब वे उन्हें युद्ध का आँखों देखा हाल सुना रहे थे। ‘सुयोधन’ कहकर दुर्योधन को संबोधित किया गया है। सुयोधन उसका असली नाम था, जिसका अर्थ होता है ‘अच्छा योद्धा’।

ख) जयध्वनि से आप क्या समझते हैं? लिखिए। जयध्वनि कब, कौन, किसकी करता है?

उत्तर: ‘जयध्वनि’ का अर्थ है ‘विजय का नारा’ या ‘जीत का जयकारा’। युद्ध में विजय प्राप्त करने के बाद, जीतने वाला पक्ष अपनी खुशी और सफलता को प्रकट करने के लिए जयध्वनि करता है। यहाँ पर, दुर्योधन के गिरने के बाद पांडवों ने अपनी जीत की जयध्वनि की थी।

ग) पांडव हर्ष मनाते हुए अपने शिविर में क्यों लौटे? उन्हें किस बात की खुशी थी?

उत्तर: पांडव हर्ष मनाते हुए अपने शिविर में इसलिए लौटे क्योंकि उनके जीवन का सबसे बड़ा और कठिन संघर्ष समाप्त हो गया था। उन्हें इस बात की खुशी थी कि उन्होंने अधर्म पर धर्म की विजय प्राप्त की थी, अपने अपमान का बदला ले लिया था, और अपना खोया हुआ राज्य और सम्मान वापस पा लिया था। यह अठारह दिनों के भयानक युद्ध के अंत और एक नई सुबह की शुरुआत का प्रतीक था, इसलिए वे प्रसन्न थे।

घ) अश्वत्थामा कौन है? इनके विषय में लिखिए।

उत्तर: अश्वत्थामा, गुरु द्रोणाचार्य का पुत्र और कौरव पक्ष का एक महान योद्धा था। वह अपने पिता की छल से हुई मृत्यु के कारण पहले से ही पांडवों से बहुत क्रोधित था। जब उसने देखा कि भीम ने गदा युद्ध के नियम के विरुद्ध दुर्योधन की जांघ पर प्रहार किया है, तो उसका क्रोध चरम पर पहुँच गया। इस अन्याय को देखकर उसने पांडव वंश का सर्वनाश करने की प्रतिज्ञा की और इसी प्रतिशोध की आग में उसने रात के अँधेरे में पांडवों के सोते हुए पुत्रों की निर्मम हत्या कर दी।

८) “अर्थ का अनर्थ ना करो…”

क) उपर्युक्त वाक्य किसने किससे कहे हैं? ‘अर्थ का अनर्थ न करो’ से क्या अभिप्राय है?

उत्तर: यह वाक्य युधिष्ठिर ने दुर्योधन से कहे हैं। ‘अर्थ का अनर्थ न करो’ का अभिप्राय है कि ‘मेरी बातों का गलत मतलब मत निकालो’। युधिष्ठिर दुर्योधन से कहना चाहते हैं कि मैं यहाँ तुम्हारा मज़ाक उड़ाने या अपनी जीत का घमंड दिखाने नहीं आया हूँ, बल्कि सहानुभूतिवश आया हूँ, इसलिए मेरी भावनाओं को गलत मत समझो।

ख) ‘हो सकता है तुम्हें पश्चाताप हो रहा हो’ में किस बात के पश्चाताप की ओर संकेत है?

उत्तर: यहाँ युधिष्ठिर उन सभी बुरे कर्मों के पश्चाताप की ओर संकेत कर रहे हैं जो दुर्योधन ने जीवन भर किए थे। इसमें पांडवों के साथ किया गया अन्याय, द्रौपदी का अपमान, राज्य का लालच और अपनी ज़िद के कारण लाखों लोगों को मृत्यु के मुँह में धकेलना शामिल है। युधिष्ठिर को उम्मीद थी कि शायद मृत्यु के समय दुर्योधन को अपनी इन गलतियों का अहसास हो रहा हो।

ग) उपर्युक्त कथन की दुर्योधन पर क्या प्रतिक्रिया हुई? क्या वह अपने को दोषी मानता है?

उत्तर: युधिष्ठिर की सहानुभूति भरी बातों का दुर्योधन पर उल्टा असर हुआ। वह पश्चाताप करने के बजाय और अधिक क्रोधित हो गया और उसने युधिष्ठिर पर ताना मारने का आरोप लगाया। वह स्वयं को दोषी बिल्कुल नहीं मानता। इसके विपरीत, वह खुद को ‘सुयोधन’ कहकर अपनी श्रेष्ठता जताता है और युधिष्ठिर पर आरोप लगाता है कि इतिहास में उसी का नाम खराब किया जाएगा। यह दिखाता है कि मृत्यु के समय भी उसका अहंकार और घमंड बना हुआ है।

घ) ‘व्यथा’ किस प्रकार हल्की की जा सकती है? क्या आपने कभी किसी की व्यथा हल्की की है?

उत्तर: किसी व्यक्ति की ‘व्यथा’ या गहरे दुख को सहानुभूति और सांत्वना के शब्दों से हल्का किया जा सकता है। जब हम किसी दुखी व्यक्ति की बात को धैर्य से सुनते हैं और उसे यह महसूस कराते हैं कि हम उसके दर्द को समझते हैं, तो उसका बोझ कम हो जाता है। युधिष्ठिर भी दुर्योधन की व्यथा को सुनकर उसे हल्का करना चाहते थे। (इस प्रश्न का दूसरा भाग व्यक्तिगत अनुभव पर आधारित है, आप किसी ऐसी घटना का वर्णन कर सकते हैं जहाँ आपने किसी मित्र या रिश्तेदार को उसके बुरे समय में सांत्वना दी हो।)

९) “युधिष्ठिर ने सदा न्याय ही किया है…”

क) उपर्युक्त वाक्य किसने, किससे किस संदर्भ में कहे हैं?

उत्तर: यह वाक्य युधिष्ठिर ने दुर्योधन से कहे हैं। यह उस संदर्भ में कहा गया है जब दुर्योधन युधिष्ठिर पर आरोप लगाता है कि वह जीते हुए राजा की तरह अपनी मनमानी करेगा और इतिहास को गलत तरीके से लिखवाएगा। इसके जवाब में युधिष्ठिर अपने चरित्र का बचाव करते हुए यह कहते हैं।

ख) युधिष्ठिर को ह्रदय को दहलाने वाले किन-किन भीषण दृश्यों का सामना करना पड़ा?

उत्तर: युधिष्ठिर को न्याय के मार्ग पर चलते हुए कई हृदय-विदारक दृश्यों का सामना करना पड़ा। उन्हें अपनी आँखों के सामने अपने प्रियजनों और गुरुजनों जैसे भीष्म पितामह और द्रोणाचार्य को तड़प-तड़प कर मरते देखना पड़ा। इसके अलावा, युद्ध के कारण अनाथ हुए बच्चों और विधवा हुई स्त्रियों का दुख और चीत्कार भी उन्हें सहना पड़ा।

ग) युधिष्ठिर को न्यायवान एवं धर्मराज क्यों कहा गया है? उदाहरण सहित लिखिए।

उत्तर: युधिष्ठिर को ‘न्यायवान’ और ‘धर्मराज’ इसलिए कहा गया है क्योंकि उन्होंने अपने जीवन में कभी भी और किसी भी परिस्थिति में धर्म और सत्य का मार्ग नहीं छोड़ा। उनके लिए न्याय और वचन का पालन व्यक्तिगत सुख-दुख से कहीं बढ़कर था। उदाहरण के लिए, जुए में सब कुछ हार जाने के बाद, वचन का पालन करने के लिए उन्होंने बिना किसी विरोध के 13 वर्षों का कठिन वनवास स्वीकार किया। यही उनकी धर्मपरायणता का सबसे बड़ा प्रमाण है।

घ) ‘अंत में न्याय की ही विजय होती है।’ इस बात से आप कहाँ तक सहमत हैं? अपने विचार व्यक्त कीजिए।

उत्तर: मैं इस बात से पूरी तरह सहमत हूँ कि अंत में न्याय की ही विजय होती है। हो सकता है कि न्याय के रास्ते पर चलने वाले व्यक्ति को बहुत कठिनाइयों और कष्टों का सामना करना पड़े और अन्याय करने वाला कुछ समय के लिए शक्तिशाली दिखे। लेकिन इतिहास गवाह है, चाहे वह महाभारत हो या कोई और कहानी, जीत हमेशा सत्य और न्याय की ही होती है। अधर्म और झूठ चाहे कितना भी ताकतवर क्यों न हो, उसका अंत निश्चित होता है।

१०) “मैं तुम्हारी यह आत्मप्रवंचना नहीं…”

क) उपर्युक्त वाक्य किसने किससे किस संदर्भ में कहे हैं?

उत्तर: यह वाक्य दुर्योधन ने युधिष्ठिर से कहे हैं। जब युधिष्ठिर अपनी सफाई में कहते हैं कि उन्होंने हमेशा न्याय का पालन किया है और बहुत दुख सहे हैं, तो दुर्योधन उनकी बातों को झूठा और आत्मप्रवंचना बताकर खारिज कर देता है।

ख) ‘तुम विजय की डींग मार सकते हो, न्याय धर्म की नहीं।’ दुर्योधन का युधिष्ठिर के लिए ऐसा कहना कहाँ तक ठीक है?

उत्तर: दुर्योधन का ऐसा कहना बिल्कुल भी ठीक नहीं है। यह उसकी हार की खीज और ईर्ष्या को दिखाता है। पांडवों की विजय केवल सैन्य शक्ति की नहीं, बल्कि धर्म और न्याय की विजय थी। उनका पक्ष सत्य पर आधारित था, इसीलिए उन्हें अंत में सफलता मिली। दुर्योधन सच को स्वीकार नहीं कर पा रहा है।

ग) ‘आत्मप्रवंचना’ का क्या अर्थ है? इस शब्द का प्रयोग किसने किसके लिए और क्यों किया है?

उत्तर: ‘आत्मप्रवंचना’ का सही अर्थ है स्वयं को धोखा देना। यह एक ऐसी स्थिति है जब व्यक्ति अपनी गलतियों या बुरी इच्छाओं को स्वीकार नहीं करता और खुद को यह विश्वास दिलाता है कि वह जो भी कर रहा है, वह किसी अच्छे मकसद के लिए कर रहा है।

इस शब्द का प्रयोग दुर्योधन ने युधिष्ठिर के लिए किया है। जब युधिष्ठिर ने कहा कि उन्होंने यह युद्ध न्याय और धर्म के लिए किया है, तो दुर्योधन ने उन पर आत्मप्रवंचना का आरोप लगाया। दुर्योधन के अनुसार, युधिष्ठिर असल में राज्य के लालची और ईर्ष्यालु हैं, लेकिन वे इस सच को स्वीकार नहीं कर रहे हैं। वे खुद को यह कहकर धोखा दे रहे हैं कि वे ‘धर्मराज’ हैं, ताकि वे अपने स्वार्थ पर न्याय का पर्दा डाल सकें।

घ) मानव जीवन के लिए महाभारत का क्या संदेश है?

उत्तर: महाभारत का सबसे बड़ा संदेश यह है कि धर्म की हमेशा अधर्म पर विजय होती है। यह हमें सिखाता है कि लालच, अहंकार और अन्याय का रास्ता अंत में विनाश की ओर ही ले जाता है, चाहे व्यक्ति कितना भी शक्तिशाली क्यों न हो। इसके अलावा, महाभारत हमें कर्म करने का संदेश देता है – कि हमें अपना कर्तव्य निभाना चाहिए, भले ही परिणाम कुछ भी हो। यह हमें सिखाता है कि हर कर्म का फल मिलता है, इसलिए हमें हमेशा अच्छे कर्म करने चाहिए।

११) “दुर्योधन: और नहीं तो क्या?…”

क) ‘जिस राज्य पर तुम्हारा रत्ती भर भी अधिकार नहीं’ क्या दुर्योधन द्वारा कही गई ये पंक्तियाँ उचित हैं?

उत्तर: नहीं, दुर्योधन द्वारा कही गई यह पंक्ति बिल्कुल अनुचित और झूठी है। हस्तिनापुर के सिंहासन पर ज्येष्ठ पुत्र के वंशज होने के नाते पांडवों का ही पहला और कानूनी अधिकार था। महाराज धृतराष्ट्र केवल कार्यवाहक राजा थे। दुर्योधन का अधिकार पांडवों के बाद आता था।

ख) ‘स्वार्थ का तांडव नृत्य’ से क्या अभिप्राय है? तांडव नृत्य कौन करता है?

उत्तर: ‘स्वार्थ का तांडव नृत्य’ का अभिप्राय है ‘अपने स्वार्थ के लिए किया गया भयंकर विनाश’। दुर्योधन, पांडवों पर आरोप लगा रहा है कि उन्होंने अपने राज्य के स्वार्थ के लिए यह विनाशकारी युद्ध किया। तांडव नृत्य भगवान शिव क्रोध में करते हैं, जिससे सृष्टि का विनाश होता है।

ग) किन परिस्थितियों में महाभारत का युद्ध हुआ था? संक्षिप्त विवरण दीजिए।

उत्तर: महाभारत का युद्ध दुर्योधन के हठ और पांडवों के साथ हुए लगातार अन्याय के कारण हुआ। इसकी शुरुआत पांडवों को लाक्षागृह में जलाने की साजिश, छल-कपट के जुए, भरी सभा में द्रौपदी के अपमान और फिर पांडवों को 13 वर्ष के वनवास से हुई। वनवास पूरा होने के बाद भी जब दुर्योधन ने शांति का प्रस्ताव ठुकरा दिया और सुई की नोक बराबर भी जमीन देने से मना कर दिया, तब युद्ध ही एकमात्र विकल्प बचा।

घ) युधिष्ठिर और दुर्योधन के मध्य हुए वार्तालाप से दोनों के चरित्रों में क्या भेद है? स्पष्ट कीजिए।

उत्तर: इस वार्तालाप से दोनों के चरित्रों का भेद स्पष्ट हो जाता है। युधिष्ठिर का चरित्र शांत, धर्मपरायण और अपने शत्रु के प्रति भी दया भाव रखने वाला है। वे अंत तक सत्य और न्याय की बात करते हैं। इसके विपरीत, दुर्योधन का चरित्र अहंकारी, हठी और अपनी गलतियों को कभी न मानने वाला है। वह मृत्यु के समय भी पश्चाताप करने के बजाय पांडवों को ही दोष देता है। यह संवाद धर्म और अधर्म के बीच के अंतर को साफ-साफ दिखाता है।

१२) “सब तुम्हारे गुणों से प्रभावित थे…”

क) उपर्युक्त वाक्य किसने, किससे और किस संदर्भ में कहे हैं? कौन सब किसके गुणों से प्रभावित थे?

उत्तर: यह वाक्य दुर्योधन ने युधिष्ठिर से व्यंग्य करते हुए कहे हैं। दुर्योधन यह कहना चाहता है कि भीष्म और द्रोण जैसे गुरुजन युधिष्ठिर के न्याय और धर्म जैसे गुणों से नहीं, बल्कि उनकी बढ़ती हुई शक्ति और बल से प्रभावित (और भयभीत) थे, इसीलिए उन्होंने युधिष्ठिर का पक्ष लिया।

ख) ‘कायरों की भाँति…’ इस पंक्ति में ‘वे’ शब्द का प्रयोग किनके लिए किया गया है? आप दुर्योधन के इस कथन से कहाँ तक सहमत हैं?

उत्तर: इस पंक्ति में ‘वे’ शब्द का प्रयोग भीष्म, द्रोण और कृपाचार्य जैसे गुरुजनों के लिए किया गया है। मैं दुर्योधन के इस कथन से बिल्कुल सहमत नहीं हूँ। गुरुजनों ने युधिष्ठिर का पक्ष इसलिए लिया क्योंकि वे जानते थे कि न्याय और अधिकार युधिष्ठिर के साथ है, न कि वे कायर थे।

ग) ‘भय जिसका आधार हो वह शांति स्थायी नहीं हो सकती’ इस कथन की व्याख्या कीजिए।

उत्तर: यह एक बहुत गहरी बात है। इसका अर्थ है कि जो शांति डर दिखाकर या किसी को दबाकर स्थापित की जाती है, वह कभी भी स्थायी या सच्ची नहीं हो सकती। ऐसी शांति केवल एक दिखावा होती है और जैसे ही मौका मिलता है, दबा हुआ पक्ष विद्रोह कर देता है। सच्ची और स्थायी शांति केवल न्याय, समानता और आपसी सम्मान के आधार पर ही स्थापित हो सकती है, डर के आधार पर नहीं।

घ) ‘न्याय और सत्य’ का जीवन में क्या महत्व है? लिखिए।

उत्तर: न्याय और सत्य मानव जीवन और समाज के आधार स्तंभ हैं। सत्य के बिना विश्वास नहीं हो सकता और न्याय के बिना समाज में व्यवस्था नहीं रह सकती। जीवन में सत्य का मार्ग हमें आत्मिक शक्ति और सम्मान दिलाता है, जबकि न्याय यह सुनिश्चित करता है कि किसी के साथ अन्याय न हो और सबको अपने अधिकार मिलें। जिस व्यक्ति और समाज में इन दो मूल्यों की कमी होती है, उसका पतन, दुर्योधन की ही तरह, निश्चित होता है।

१३) “दुर्योधन : तभी तो कहता हूँ…”

क) उपर्युक्त अवतरण का प्रसंग क्या है? युधिष्ठिर को अंधा क्यों कहा जा रहा है?

उत्तर: इस अवतरण का प्रसंग यह है कि दुर्योधन यह सिद्ध करने की कोशिश कर रहा है कि उसी का पक्ष न्याय पर था। वह युधिष्ठिर को ‘अंधा’ इसलिए कह रहा है क्योंकि, दुर्योधन के अनुसार, युधिष्ठिर अपने स्वार्थ में इतने अंधे हो गए हैं कि उन्हें यह सीधी सी बात भी नहीं दिख रही कि सभी महान योद्धाओं ने युद्ध में दुर्योधन का साथ क्यों दिया।

ख) क्या आपको दुर्योधन का यह वक्तव्य युधिष्ठिर के प्रति सत्य प्रतीत होता है?

उत्तर: नहीं, दुर्योधन का यह वक्तव्य बिल्कुल भी सत्य नहीं है। यह सच है कि भीष्म और द्रोण जैसे योद्धा उसकी तरफ से लड़े, लेकिन वे अपने मन से नहीं बल्कि हस्तिनापुर के सिंहासन के प्रति अपनी निष्ठा के वचन से बंधे होने के कारण लड़े थे। उनका नैतिक समर्थन और आशीर्वाद हमेशा पांडवों के साथ ही था।

ग) सामाजिक अवमानना होते हुए भी दुर्योधन अपने आप को श्रेष्ठ क्यों मनवाना चाहता है?

उत्तर: दुर्योधन का पूरा व्यक्तित्व उसके अहंकार पर टिका है। वह जीवन भर खुद को सबसे श्रेष्ठ समझता रहा। अब हार और मृत्यु के सामने, अपनी गलती मान लेने का अर्थ होगा अपने पूरे जीवन के अहंकार को तोड़ना, जो उसके लिए मृत्यु से भी बड़ा कष्ट है। इसलिए, वह आखिरी साँस तक झूठ बोलकर और झूठे तर्क देकर खुद को श्रेष्ठ साबित करना चाहता है ताकि उसका अहंकार बना रहे।

घ) ‘दुर्योधन की नीतियों से असहमत होते हुए भी अनेक योद्धाओं ने दुर्योधन के पक्ष में युद्ध किया था…’ इस कथन से आप कहाँ तक सहमत हैं?

उत्तर: मैं इस कथन से पूरी तरह सहमत हूँ। यह महाभारत की सबसे बड़ी त्रासदियों में से एक है। भीष्म और द्रोण जैसे महान व्यक्ति दुर्योधन की हर गलत नीति को जानते थे और मन ही मन उससे असहमत भी थे। उन्होंने कई बार उसे रोकने की कोशिश भी की। लेकिन वे हस्तिनापुर के सिंहासन की सेवा करने की अपनी प्रतिज्ञा से बंधे हुए थे, इसलिए उन्हें उस व्यक्ति के लिए भी लड़ना पड़ा जो उस सिंहासन पर बैठकर अधर्म कर रहा था।

१४) “भविष्य को भी तुम चाहो तो…”

क) “भविष्य को भी तुम चाहो तो बहका सकते हो” से क्या अभिप्राय है? स्पष्ट कीजिए।

उत्तर: इस पंक्ति से दुर्योधन का अभिप्राय है कि “इतिहास हमेशा जीतने वालों द्वारा लिखा जाता है”। वह युधिष्ठिर पर आरोप लगा रहा है कि चूँकि अब तुम युद्ध जीत गए हो, तो तुम इतिहास अपनी मर्जी से लिखवाओगे। तुम खुद को नायक और मुझे (सुयोधन को) खलनायक बनाकर भविष्य की पीढ़ियों को गुमराह करोगे।

ख) “ईर्ष्या के रथ” से क्या तात्पर्य है? यहाँ किस व्यवहार का उल्लेख किया जा रहा है?

उत्तर: “ईर्ष्या का रथ” एक मुहावरा है जिसका प्रयोग दुर्योधन ने युधिष्ठिर के लिए किया है। उसका तात्पर्य है कि युधिष्ठिर का जीवन रूपी रथ हमेशा दुर्योधन के प्रति ईर्ष्या और जलन से ही चलता रहा है। वह युधिष्ठिर के सभी कार्यों को धर्म के लिए नहीं, बल्कि ईर्ष्या के कारण की गई साजिश बता रहा है।

ग) “तुम्हारी तैयारियों ने उसे एक रात भी चैन से नहीं सोने दिया।” यह वाक्य दुर्योधन की किस मनःस्थिति को प्रकट करता है?

उत्तर: यह वाक्य दुर्योधन की विक्षिप्त और शंकालु मनःस्थिति को प्रकट करता है। वह पांडवों के हर कार्य, जैसे उनका विवाह, राजसूय यज्ञ, या अन्य राजाओं से मित्रता, को अपने विरुद्ध एक साजिश के रूप में देखता था। यह दिखाता है कि वह खुद इतना कुटिल था कि उसे दूसरों के अच्छे कामों में भी केवल साजिश ही नजर आती थी। वह अपनी असुरक्षा और डर को युधिष्ठिर पर थोप रहा है।

घ) उपर्युक्त कथन की युधिष्ठिर पर क्या प्रतिक्रिया होती है?

उत्तर: दुर्योधन की इन ऊल-जुलूल बातों को सुनकर युधिष्ठिर को उस पर तरस आता है और वे दुखी होते हैं। वे कहते हैं कि “सुयोधन! लगता है तुम अपनी सुध-बुध खो बैठे हो और प्रलाप कर रहे हो।” युधिष्ठिर उसे याद दिलाते हैं कि असल में कष्ट पांडवों ने सहे हैं, उन्हें अपमानित होकर भीख माँगनी पड़ी और जंगलों में भटकना पड़ा। वे कहते हैं कि कोई भी समझदार व्यक्ति तुम्हारी इन असंभव बातों पर विश्वास नहीं करेगा।

१५) “युधिष्ठिर: सुयोधन! मुझे लगता है…”

क) ‘मुझे लगता है कि तुम सुध-बुध खो बैठे हो’ ऐसा युधिष्ठिर ने क्यों कहा? ‘असंभाव्य’ से क्या अभिप्राय है?

उत्तर: युधिष्ठिर ने ऐसा इसलिए कहा क्योंकि दुर्योधन पूरी तरह से अतार्किक और झूठी बातें कर रहा था, और खुद को पीड़ित बता रहा था। ‘असंभाव्य’ का अभिप्राय है ‘जो संभव ही न हो’ या ‘जिस पर विश्वास करना नामुमकिन हो’। युधिष्ठिर के लिए यह बात असंभव थी कि कोई पांडवों के कष्टों को देखकर भी उन्हें दोषी ठहरा सकता है।

ख) पांडवों ने कौरवों से तिरस्कृत होकर क्या-क्या किया?

उत्तर: कौरवों से तिरस्कृत होकर पांडवों को असहनीय कष्ट उठाने पड़े। उन्हें अपना राज्य छोड़कर 13 वर्षों के लिए वनवास जाना पड़ा, जंगलों की धूल छाननी पड़ी, अपनी पहचान छिपाकर राजा विराट के यहाँ दास बनकर दूसरों की सेवा करनी पड़ी और हर पल अपमान सहना पड़ा।

ग) क्या कोई ज्ञानी व्यक्ति दुर्योधन के युधिष्ठिर के प्रति वक्तव्यों पर विश्वास करेगा?

उत्तर: नहीं, कोई भी ज्ञानी और विवेकशील व्यक्ति दुर्योधन के वक्तव्यों पर विश्वास नहीं करेगा। उसके आरोप पूरी तरह से निराधार और तथ्यों के विपरीत हैं। पांडवों द्वारा सहे गए कष्ट और दुर्योधन द्वारा किए गए अधर्म इतने स्पष्ट हैं कि कोई भी समझदार व्यक्ति सच और झूठ के बीच का अंतर आसानी से समझ सकता है। दुर्योधन के शब्द केवल एक हारे हुए व्यक्ति का अपनी गलती छिपाने का असफल प्रयास मात्र हैं।

घ) इस एकांकी के लेखक कौन हैं? इस एकांकी का क्या उद्देश्य है?

उत्तर: इस एकांकी के लेखक श्री भारत भूषण अग्रवाल हैं। इस एकांकी का मुख्य उद्देश्य महाभारत की कहानी को एक नए दृष्टिकोण से प्रस्तुत करना है। लेखक यह दिखाना चाहते हैं कि एक बुरा व्यक्ति भी अपनी नजर में खुद को बुरा नहीं मानता और अंत तक अपने कर्मों को सही ठहराने की कोशिश करता है। यह एकांकी हमें दुर्योधन के मनोविज्ञान को समझने का अवसर देती है और यह संदेश देती है कि अहंकार और अधर्म का अंत हमेशा विनाश ही होता है।

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